"माँ"

              "माँ"
छोटे से आंचल में अपने पूरी दुनिया समा लेती है
अपनी एक मुस्कान में वो हर आंसू छुपा लेती है।

निवाला आख़िरी भी हो वो थाली में रख जाती है
मन नहीं है झूठ कहकर वो भूखी ही सो जाती है।

अक्सर उदास रहती है बच्चो को देख खिलखिला पड़ती है
बच्चो की एक हंसी के लिए वो अपना हर गम भूला देती है।

सुबह से पहले उठकर  मंदिर में सूरज जला देती है
 खुद अंधेरों में रहकर वो सबका दीपक बन जाती है।

 सिल सिल कर एक ही चीर को उम्र भर पहन लेती है
 बात बच्चो की हो जहां वो वस्त्रों का अंबार लगा देती है।

 घंटो चूल्हे की आंच में तप कर मनपसंद भोजन पकाती है
 पंखे की जब बात हो तो खुद कोने में बैठ जाती है।



 पाई पाई जोड़कर हर दिन कहीं डिब्बों में छिपाती है
 जरूरत जब संतान को हो वो सबसे अमीर बन जाती है।

 गर्भ से जब होती है नए ख़्वाब सजाती है
 अपने सपने छोड़कर वो एक नई दुनिया बसाती है।

 कोई दे न सके कभी इतना दुलार लुटाती है
 बच्चे की बलाईयां लेकर कर वो खुद की नज़र उतारती है।

 कोई और नहीं है वो एक "माँ" ही होती है
 खुद कांटो पे चलकर बच्चे के लिए जो सुंदर फूल चुन लती है।।



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