" सबब तेरी बरबादी का"

कैसा कहर बरपा ये तेरी बर्बादी का
तेरी की हुई नादानी का। 

जल रही है धरा भभक कर
जल रहा है आसमां भी
दुःख का सागर उफ़न रहा है
टूट रहा है पहाड़ भी
तड़प रही है बाँहें बिछड़कर
सूने हुए कुछ मकान भी।। 

कैसा कहर बरपा ये तेरी बर्बादी का
तेरी की हुई नादानी का। 

लहू बह रहा नीर सा
कराह रही मुस्कुराहट भी
जो थी ललक महलों की
माटी मे दफ़न हो गई
मेहफ़िले थी जो आवाम से भरी
वो कारग़ाहो में तबदील हो गई। । 

कैसा कहर बरपा ये तेरी बर्बादी का
तेरी की हुई नादानी का। 

मशरूफ़ थे तो वक़्त मांगा
आज वक़्त मिला तो तकल्लुफ़ दे गया
जीवन जिया भागा दौड़ी मे
आज रुका तो अर्थ दे गया
वक़्त अभी भी है बाकी
तू रोक ले ये कदम
बढ़ते हैं जो अंधाधुंध
और बंधते जाते हैं करम। । 

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