"तलाश"

                              "तलाश"

कुछ न तलाश मुझको बस अपनी तलाश में हूं,
ज़िंदा तो हूं मगर लाश सा हूं।

कभी नीर सा बहता कभी ठहरा सा हूं,
शांत तो हूं पर भीतर सैलाब सा हूं।

चहकता भी हूं रोदन भी करता हूं,
हंसता हूं मगर भीतर सहमा सा हूं।

यूं तो कुछ उम्मीद नहीं करता किसी से मगर,
कुछ पाने को भीतर ही तरसता सा हूं।

मंजिले तो बहुत मिली हैं राहों में मगर,
एक मुकाम पाने को भटकता सा हूं।

कभी खुला आसमां कभी काले बदरा सा हूं,
जाने कौन सी उलझनों में उलझा सा हूं।

रोज़ ही निकलता हूं रात के अंधेरों में मगर,
न जानें क्यों अंधेरों में तन्हा सा हूं।

करता तो हूं सब तेरी एक नज़र पाने को मगर,
तेरी नज़र में क्यों हमेशा लापरवाह सा हूं।।


 

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